जगदलपुर । 75 दिनों तक चलने वाले बस्तर दशहरे पर्व में 14 से अधिक महत्वपूर्ण रस्में निभाई जाती है. बस्तर दशहरे में बस्तर की आराध्यदेवी दंतेश्वरी की भक्ति के लिए पारंपरिक वाद्ययंत्र बजाया जाता है. इस वाद्ययंत्र को मुंडाबाजा कहा जाता है. मुंडा जाति के लोग इस वाद्ययंत्र का इस्तेमाल करते हैं इस कारण वाद्ययंत्र का नाम मुंडाबाजा पड़ा है.



मुंडा जाति के सदस्य वादक बाबूलाल बघेल ने बताया कि रियासतकाल में जब राजा पुरुषोत्तम देव वारंगल से बस्तर आये इस दौरान मुंडाजाति के 2 सदस्य भी उनके साथ रहे. जो दंतेश्वरी देवी की भक्ति हांथो से ताली बजाकर करते थे. कुछ समय बाद सदस्य किसी बड़े तालाब में नहाने गए. उस दौरान तालाब में पाए जाने वाले बड़े आकार के मेंढक जिसके बस्तर में (ओयाँ) कहा जाता है. उसे मारकर उसके चमड़ी को निकाला गया. जिसके बाद कुम्हार के हांथो से बने एक खोखली मिट्टी के पात्र में मेंढक के चमड़ी को चिपकाया गया. और दंतेश्वरी देवी के समक्ष भक्ति के दौरान वाद्ययंत्र को बजाया करते थे. इसी बीच हल्बा जाति का एक युवा मानसाय ठीक वैसे ही आकर का लड़की से ढांचा तैयार किया. जिसमें मुंडा जाति के लोगों ने बकरे की चमड़ी को उड़द के दाल के साथ चिपकाया. जिसके बाद उसमें से अच्छी धुन निकलने लगी. और भक्ति का कार्य जारी था. बस्तर दशहरा के दौरान विशालकाय रथ फंसा हुआ था. जो मुंडाबाजा कि भक्ति से बाहर निकला है.